Vijaya Dashami Special : रावण कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर
रावण जल गया मैदान में , भीड़ ने तालियां भी बजाईं . जय श्रीराम और जयमाता दी के नारे भी लग गए और ऐसा हर साल होता है . दशहरे(Vijaya Dashami) के मौके पर देशभर में रावण के विशाल पुतले जलाए जाते हैं। मेले सजते हैं, भीड़ तालियाँ बजाती है और हम सब मिलकर यह मान लेते हैं कि बुराई पर अच्छाई की जीत हो गई। लेकिन क्या वाकई ऐसा होता है? क्या हर बार जलता हुआ रावण सच में हमारे भीतर की बुराई को भी जला देता है, या फिर वह सिर्फ एक परंपरा बनकर रह गया है? सच तो यह है कि रावण केवल एक ऐतिहासिक पात्र नहीं, बल्कि एक प्रतीक है , उस अहंकार, लालच, ईर्ष्या, और स्वार्थ का, जो आज भी हर इंसान के भीतर किसी न किसी रूप में मौजूद है। वह रावण जो दूसरों के दर्द से आंखें मूंद लेता है, जो ‘मैं’ और ‘मेरा’ में उलझा रहता है, जो सच्चाई जानकर भी झूठ का सहारा लेता है। वह रावण आज भी ज़िंदा है, और वह कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर है।

राम सिर्फ रावण को मारने नहीं आए थे….
मनोविज्ञान के अनुसार, हर व्यक्ति में एक ‘शैडो सेल्फ’ होता है , हमारी वह परछाईं जिसे हम पहचानना नहीं चाहते। जब हम दूसरों की सफलता से जलते हैं, जब हम अपनों से छल करते हैं या स्वार्थ में डूब जाते हैं तब वही परछाईं सक्रिय हो जाती है। रामायण के रावण की सबसे बड़ी हार उसकी बुद्धि या ताकत से नहीं, बल्कि उसके अहंकार से हुई थी। और यही अहंकार आज भी कई रूपों में हमारे भीतर पल रहा है। और हमारे धर्म और आध्यात्म भी हमें यही सिखाते हैं कि असली युद्ध बाहर नहीं, भीतर लड़ा जाता है। जब तक हम खुद के भीतर झाँककर अपनी बुराइयों को पहचानकर उनसे लड़ने का साहस नहीं करेंगे, तब तक कोई भी दशहरा हमें सच्ची विजय का अनुभव नहीं करा पाएगा। ये बात समझनी होगी की , राम सिर्फ रावण को मारने नहीं आए थे , वह मनुष्य में मर्यादा, करुणा और आत्मसंयम की स्थापना के लिए आए थे। यदि हम सिर्फ रावण को जलाकर लौट आए, और खुद की ईर्ष्या, घृणा और लालच को संभालने की कोशिश न करें तो यह त्योहार केवल एक सतही उत्सव बनकर रह जाएगा।

एक बुराई चुनकर उसे सच में छोड़ने का संकल्प ले..
इस समाज में यह भीतर का रावण हर जगह दिखता है , राजनीति में जब सत्ता सेवा से ऊपर हो जाती है, रिश्तों में जब प्यार की जगह स्वार्थ आ जाता है, सोशल मीडिया पर जब सच्चाई से ज्यादा दिखावे को अहमियत दी जाती है। ये सब हमारे भीतर के रावण की ही छवियाँ हैं। ऐसे में अगर हर व्यक्ति हर साल दशहरा पर एक बुराई चुनकर उसे सच में छोड़ने का संकल्प लेना चाहिए चाहे वह ईर्ष्या हो, लालच, घृणा या अहंकार तो शायद यह पर्व केवल एक रस्म नहीं रहेगा, बल्कि एक परिवर्तन का माध्यम बन जाएगा।
रावण सिर्फ मैदान में नहीं, हमारे भीतर भी जलाया जाए
विजयादशमी की असली सार्थकता तब है जब रावण सिर्फ मैदान में नहीं, हमारे भीतर भी जलाया जाए। जब हम खुद से सवाल करें कि क्या हमने सच में किसी बुराई पर जीत पाई? क्या हमने किसी नफरत को प्रेम में बदला? अगर इन सवालों के जवाब ‘हां’ में हैं, तो समझिए कि आपकी दशहरा सच में विजय की ओर एक कदम है। क्योंकि दीपक केवल बाहर नहीं, भीतर भी जलने चाहिए। और रावण भी केवल पुतला नहीं, भीतर का घना अंधकार है जो तब तक बना रहेगा जब तक हम उसे पहचानकर उस पर विजय नहीं पा लेते। आसान नहीं होगा शायद क्योंकि ये बातें करने में आसान ज्यादा हैं करने में मुश्किल लेकिन यही मुश्किलों का हल भी है , आज के दौर को देखते हुए तो इसका भागी बनने का सोचना होगा और समझना होगा की रावण के बाहर से पहले भीतर जलाना होगा तभी असली विजय होगी